कर्मों के अनुसार फल भुगतानेवाले सर्वव्यापी परमात्मा की सत्ता न मानने से मनुष्य में उच्श्रन्ख्लता बढ़ती है. उच्श्रंखल मनुष्य में झूट, कपट, चोरी-जारी, हिंसा आदि पाप कर्मों की एवं काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार आदि अवगुणों की वृद्धि होकर उस का पतन हो जाता है, जिसके परिणाम में वह और महा दुखी बन जाता है.
ईश्वर को न मानने से ईश्वर के तत्वज्ञान की खोज नहीं हो सकती और तत्वज्ञान की खोज के बिना ईश्वर के तत्व का ज्ञान नहीं होता और ज्ञान बिना कल्याण नहीं हो सकता, जीवन सुखी नहीं हो सकता.
ईश्वर को न मानने से कृतघ्नता का दोष आ जाता है, क्योंकि जो मनुष्य सर्व संसार के उत्पन्न तथा पतन करने वाले सबके सुह्रद उस परमपिता परमात्मा को नहीं मानते, वह यदि अपने को जन्म देने वाले माता-पिता को भी न मानें तो क्या आश्चर्य है? जन्म से उपकार करने वाले माता-पिता को न मानने वाले के समान दूसरा कौन कृतघ्न है?
ईश्वर को न मानने से मनुष्य की आध्यात्मिक स्थिति नष्ट हो जाती है और उस में पशुपन आ जाता है. संसार में जो लोग ईश्वर को नहीं मानने वाले हैं, गौर करके देखने से उनमें यह बात प्रत्यक्ष देखने में आती है.
ईश्वर के अस्तित्व में प्रमाण पूछना कोई आश्चर्यजनक बात या बुद्धिमता नहीं है. इस विषय में प्रश्न करना साधारण है. स्थूल बुद्धि से समझ में न आने वाले विषय में समझदार मनुष्यों को भी शंका हो जाती है, फ़िर साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है? परन्तु बिचारने की बात है कि जो परमात्मा स्वतः प्रमाण है और जिस परमात्मा से ही सब प्रमाणों की सिद्धि होती है उस के विषय में प्रमाण पूछना आश्चर्य भी है, जैसे किसी मनुष्य का अपने ही सम्बन्ध में शंका करना की 'मैं हूँ या नहीं' व्यर्थ है, बैसे ही ईश्वर के अस्तित्व के विषय में पूछना व्यर्थ है.
(अमूल्य शिक्षा से साभार)
1 comment:
बहुत ही ग्य्याण की बाते आप ने बताई.
धन्यवाद
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