यह एक कहावत है जिसका अर्थ है कि अगर मन सुखी है तो घर के पानी में नहा कर भी गंगा में नहाने का पुन्य प्राप्त हो सकता है. कहा जाता है कि संत कवि रैदास के जीवन में घटी एक घटना के बाद से ही यह कहावत प्रचलित हो गयी. एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।
रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।
"कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।"
यह भी कहा जाता है कि कुछ ईर्ष्यालु लोगों ने रैदास की शिकायत काशी नरेश से की, कि रैदास गंगा जल और अपनी कठौती में भरे गंदे पानी को एक बताते हैं, और इस से धार्मिक जनों की भावनाएं आहत होती हैं. काशी नरेश संतों का बहुत सम्मान करते थे. उन्होंने कहा कि वह ख़ुद इस बात की जांच करेंगे. वह रैदास जी के पास गए और इस शिकायत के बारे में उनका स्पष्टीकरण माँगा. रैदास ने कहा कि राजा ख़ुद ही देख लें. जब राजा ने कठौती में झाँका तो उन्हें माँ गंगा के दर्शन हुए. राजा ने रैदासजी के चरण स्पर्श किए और अपने महल को लौट गए.