दो मित्र बहुत समय बाद मिले. एक मित्र सफल व्यवसाई बन गए थे. खूब धन संग्रह किया. दूसरे मित्र ने जन सेवा को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया था. धन के प्रति उदासीनता ही उनका धन थी. नदी पार जंगल में घूमने गए. बहुत बातें करनी थी. अपनी सुनानी थी. दूसरे की सुननी थी.
सुनते सुनाते रात हो गई. व्यवसाई मित्र अपने धन का प्रदर्शन करते रहे और अपने मित्र को जन सेवा छोड़कर व्यवसाय में आने के लिए आमंत्रित करते रहे. अचानक ही उन्हें ध्यान आया, नदी के इस पार जंगली जानवर बहुत हैं और छिपने का कोई स्थान नहीं है. दोनों भागते हुए नदी तट पार पहुंचे. नदी पार कराने वाला नाविक दूसरे किनारे पर था और आराम करने की तैयारी कर रहा था. व्यवसाई मित्र ने उसे आवाज़ दी और कहा कि वह आकर उन्हें उस पार ले जाए. नाविक ने मना करते हुए कहा कि वह बहुत थक गया है और अब केवल आराम करेगा. व्यवसाई मित्र ने उसे कई गुना शुल्क देने का लालच दिया पर नाविक ने मना कर दिया. मित्र ने सारे रुपये जेब से निकालते हुए कहा कि वह सब रुपये उसे दे देंगे और उसके अलाबा भी पर्याप्त धन उसे देंगे. नाविक मान गया, नाव लेकर आया और उन्हें नदी के उस पार ले गया.
घर पहुँच कर व्यवसाई मित्र ने कहा, 'देखा मित्र धन में कितनी शक्ति होती है. आज अगर हमारे पास धन नहीं होता तो हम किसी जंगली जानवर के पेट में होते'.
दूसरे मित्र ने सहमति प्रकट करते हुए कहा, 'तुमने सही कहा मित्र, धन में बहुत शक्ति होती है, पर तुम एक बात नजर अंदाज कर रहे हो, हमारी जान तब बची जब तुमने धन नाविक को दे दिया. धन के संग्रह ने नहीं, धन के त्याग ने हमारी जान बचाई'.
कहानी आगे कहती है कि व्यवसाई मित्र ने व्यवसाय छोड़कर अपने जन सेवक मित्र का रास्ता अपना लिया और उनके साथ मिल कर अपने संग्रहित धन से जन सेवा करने लगे.